..और बीकानेर के एमेच्योर थियेटर को मंगलजी ने कह दिया-सैल्यूट!
अभिषेक आचार्य
RNE Bikaner
मंगलजी के कहते ही प्रदीप जी उठे और मेघी क पास चाय बनाने के लिए कहने को चल दिये। सब चुपचाप देखते रहे। प्रदीप जी वापस आये तो विष्णुकांत जी ने पूछा”प्रदीप जी क्या है, आपकी मुट्ठी इस बार नहीं घूमी।”
वे मुस्कुराये और बोले “उसकी इस बार जरूरत नहीं।” क्यों ?
मेघी ने कहा है कि आप सबको इस बार चाय मेरी तरफ से। आप लोग मेरी दुकान की शान हो। मेरा भाग्य है कि आप जैसे बड़े लोग मेरी इस छोटी सी दुकान पर बैठते हो। बड़ी बड़ी बातें करते हो। कुछ तो मुझे भी सीखने को मिलता ही है। सारी बातें तो समझ नहीं, कुछ जरूर आती है। भाई, पता है उसने एक वादा भी किया है।
वो क्या किया है। कहता है, अब मैं भी आपका नाटक देखने आया करूंगा। वो भी टिकट खरीद के।
सब हंसने लगे। जगदीश शर्मा जी ने हंसते हुए कहा “जब बीकानेर का रंग इतिहास लिखा जायेगा तब उसमें मेघी और इंडिया रेस्टोरेंट का भी उल्लेख होगा।”
सबके चेहरे पर मुस्कान तैर गई और सबने हां में गर्दन हिलाई। मंगलजी के चेहरे पर भी खुशी थी। थोड़ी देर में चाय आ गई और सब उसका स्वाद लेने लगे। अब तक चुप बैठे मोहन शर्मा जी ने पहली बार मुंह खोला। वे आये तब से चुप ही बैठे थे। सर, मुझे लगता है हमारा ये शिविर बहुत सफल होगा। सबकी भावना शुद्ध है और सब रंगमंच के लिए ईमानदारी से काम करना चाहते हैं। सबके विचार भी अच्छे हैं।
मंगलजी ने उनसे पूछा “ये आप कैसे कह सकते हो मोहन जी। आप तो रंगकर्मी नहीं। सर, लोगों को पढ़ने का तो मेरा लंबा अनुभव है। आदमी का चेहरा भी पढ़ लेता हूं और वो जो बोलता है उसके पीछे के भाव भी जान लेता हूं। इन सबको समझने के बाद ही कुछ कहने की हिम्मत कर पाया हूं। वैसे भी मैं विष्णुकांत जी, जगदीश जी, प्रदीप जी, चौहान साब, चांद जी, मामाजी आदि सबको अर्से से जानता हूं। फिर आप लोगों के साथ हरीश भादानी जी, विद्यासागर जी, सरल जी जैसे लोग हैं तो फिर भरोसा तो बनता ही है।
मंगलजी इस बात पर मुस्कुराये और बोले “आपकी बात से सहमत हूं मोहन जी। सबके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। मैं इस बात को प्रमाणित भी कर सकता हूं।
कैसे सर? उन्होंने विष्णुकांत जी तरफ रुख किया। नाटक करने में क्या क्या खर्च आता है। हॉल की बुकिंग, कुर्सियों का किराया, मेकअप का सामान, टिकट व पास की छपाई, पोस्टर के लिए कागज व कलर, हॉल पर पीने के पानी की व्यवस्था। इन पर ही खर्च होता है। ये पैसे टिकट से तो आते नहीं होंगे।
नहीं आते। फिर कहां से आते हैं ?
विष्णुकांत जी चुप। इधर उधर देखने लगे तो प्रदीप जी बीच में बोले “सर, हम लोग नोकरी करते हैं। आपस मे एकत्रित करते हैं। खर्च कर देते हैं। क्यों। जेब से क्यों खर्च करते हैं। नाटक हमें करना है। शौक है हमारा। दारू पीने वाला दारू पर खर्च करता है। जुआ खेलने वाला जुए पर खर्च करता है, उनके शौक हैं। हमारा शौक नाटक है तो हम उस पर खर्च करते हैं।
मंगलजी मुस्कुराये। मोहन जी इसलिए कह रहा था कि आप सही कह रहे हो। चलो, प्रदीप जी एक बात और बताओ।
क्या सर। पोस्टर लिखता कौन है। हम ही लिखते हैं और रात को चिपकाते हैं। कोई दूसरा लगाने थोड़े ही आयेगा। हॉल की सफाई करने का काम और कुर्सियां लगाने का काम कौन करता है। सर, मजदूर को देने के लिए पैसे थोड़े ही होते हैं। ये काम भी हम ही करते हैं। मेकअप, मंच सज्जा, लाइट आदि कौन करता है। उसके लिए तो बाहर से कोई आता होगा। बिल्कुल नहीं। ये काम भी हम लोग करते हैं। जो एक्टिंग से फ्री होता है वो संभालता रहता है। हमें तो आज तक बाहर से किसी को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ी। रिहर्सल भी आप ही करते होंगे। वो तो हमको ही करनी है सर। रोल भी तो हम ही कर रहे होते हैं।
मंगल जी मुस्कुराये। ये ही तो है असली एमेच्योर थियेटर।
सब इस टिप्पणी पर चकित।
मैंने उदयपुर, अजमेर, कोटा में भी काम किया। हालांकि वहां भी एमेच्योर थियेटर ही था, प्रोफेशनल नहीं। मगर इतनी प्रतिबद्धता नहीं थी। जो अच्छे और सच्चे एमेच्योर थियेटर के लिए जरूरी होती है। इन सब कामों को करते हुए, अपनी जेब से पैसा खर्च करके भी नाटक करते है। क्योंकि आपकी प्रतिबद्धता नाटक से है। खुद से नहीं, धन से नहीं, ग्लैमर से नहीं। इस कारण ये शुद्ध एमेच्योर थियेटर है, पवित्र। क्योंकि आपकी पहचान एक अच्छे एक्टर के रूप में लोगों में है, आप उसके लिए ही काम करते हैं। सेल्यूट है आप सभी रंगकर्मियों को।
सब उनकी यह बात सुनकर प्रफुल्लित थे। इस तरह का प्रोत्साहन तो आज तक कभी किसी ने नहीं दिया था। सबको अपने भीतर एक गर्व की अनुभूति हुई। अपने काम को किसी ने भी आज इतनी गंभीरता से विश्लेषित ही नहीं किया था। सब अपनी एक ही धुन में जुटे हुए थे, वह धुन थी अच्छा नाटक करने की। जो दर्शकों को पसंद आये।
इस चुप्पी को मंगलजी ने तोड़ा। अभी मैंने आपके लिए एक शब्द बोला, जिस पर आप लोगों ने पूरा ध्यान नहीं दिया। दिया होता तो मुझसे उसके बारे में जरूर पूछते। सभी सोचने लगे कि कौनसा शब्द।
तभी बीच में मनोहर कलांश जी बोले “आपने हमारे लिए ‘ रंगकर्मी ‘ शब्द काम में लिया था।”
बिल्कुल ठीक।
तब सबको लगा कि हां ये तो कहा था। इस पर तो ध्यान ही नहीं गया। बुलाकी भोजक ने सवाल किया”सर, आपने रंगकर्मी क्यों कहा। ये भी बता दीजिए।”
नाटक में तो अभिनेता, निर्देशक, लेखक, आदि ही होते हैं। मगर मैंने आपको रंगकर्मी जानबूझकर कहा। क्योंकि आप सब लोग वो पूरा काम करते हो जो नाटक के लिए जरूरी होता है। प्रोफेशनल थियेटर की तरह केवल एक्टर नहीं हो आप, मुक्कमिल रंगकर्मी हो। वो व्यक्ति जो अभिनय के साथ निर्देशन, लाइट, मेकअप, मंच सज्जा, आदि के भी काम कर सके वो रंगकर्मी होता है। इसलिए आप सभी को मैंने रंगकर्मी कहा।
रंगकर्मी का गहरा अर्थ पहली बार प्रकट हुआ था। इस शब्द के पीछे इतनी बातें छिपी है, इस पर कभी सोचा भी नहीं था। मैंने बहुत सी जगह काम किया। कई जगह आपसे बेहतर एक्टर थे, निर्देशक व पार्श्वकर्मी थे, मगर वहां रंगकर्मी कम थे। इसलिए कह सकता हूं कि बीकानेर जैसा रंगमंच कहीं नहीं। यहां एक्टर नहीं सब रंगकर्मी है। बीकानेर के रंगमंच का भविष्य आप लोगों के कारण बहुत उज्ज्वल है।
सभी को इस कथन से अपार खुशी हुई। सबको पहली बार अपनी महत्ता, वजूद, कद का पता चला था। सभी को लगा कि जीवन का अब तक का जो समय नाटक को दिया वो व्यर्थ नहीं, अपितु अनमोल था। हरेक के चेहरे पर संतोष के भाव के साथ एक मुस्कुराहट थी।
प्रदीपजी उठे। कहां जा रहे हो। सर, चाय व करोड़पति का कहने। पर मुट्ठी तो चली नहीं।
नहीं सर, ये मेरी तरफ से। नोकरी करता हूं। आज पहली बार महसूस हुआ कि नाटक को जो समय दिया, मेरे जीवन के वो स्वर्णिम पल है। वे मेघी की तरफ चल दिये। बाकी सब मुस्कुराते उनको देखते रहे।
वर्जन
प्रदीप भटनागर
रंगमंच एक्टर बनने का जरिया नहीं, रंगकर्मी बनने का माध्यम है। यदि उस समय इस समर्पण से रंगकर्म न हुआ होता तो बीकानेर रंगमंच की ये भव्य इमारत खड़ी नहीं होती। मगर अफसोस है कि आज हालात बदल गये। निर्देशक को तो प्रोड्यूसर बना दिया है। सब काम उसके जिम्मे। एक्टर तो केवल एक्टिंग का काम करता है, दूसरे कामों के बारे में सोचता भी नहीं। सब ऐसे नहीं, ये भी है। मगर नाटक को जिंदा रखना है, बीकानेर रंगमंच के गौरव को बरकरार रखना है तो एक्टर नहीं, रंगकर्मी बनना पड़ेगा सबको।